आजकल शिक्षा द्वारा हमें हर एक चीज की कीमत रुपयों में आंकना सिखाया गया है। मानवीय मूल्यों को हम बिलकुल भूल गए हैं। श्रम तक की कीमत एक पदार्थ की तरह लगायी जाती है, न कि एक उत्पादक की तरह; और हम उसे, जो कम-से-कम श्रम करता है, पर अधिक-से-अधिक क्रय-शक्ति रखता है, ऊँचा सामाजिक पद देते हैं। मूल्यों के ठीक पैमाने के अनुसार सामाजिक पद समाज की सेवा के अनुरूप होना चाहिए। यह गलत मापदंड धन जोड़ने और पूंजीवादी बनकर दूसरों की आजादी छिनने की सामाजिक स्वीकृति दे देता है। बड़ी-बड़ी रकमें इकट्ठा करने के साथ-साथ बहरी देशों में उस रुपये को लगाने की आवश्यकता पैदा होती है और ये चीजें बाद में अंतर्राष्ट्रीय लड़ाइयो का कारण बन जाती हैं। आर्थिक पूंजीवादी ने इस अन्तराष्ट्रीय लेन-देन को जन्म दिया है। जब तक यह चलता रहेगा, शांति एक मृगतृष्णा ही बनी रहेगी।
गाँव आन्दोलन क्यों?
जो. कॉ. कुमारप्पा
प्रस्तावना - महात्मा गाँधी
Pp.212/2007/PB
Rs. 200
जब अर्थशास्त्र और जीवन में ग्राम-दृष्टी का प्रवेश होगा, तब देहात की बनी चीजों का अधिकाधिक उपयोग करने की और जनता का मन झुकेगा। अपने जीवन की आवश्यक वस्तुएं देहात में तैयार करने की कला और औजारों को सुधारने की, देहात के लोगों को सिखाने-पढाने की, देहाती जंगल और खेतों की पैदावार तथा उपयोग करने के ज्ञान के अभाव में देहातों में बेकार चलें जानेवाले संपत्ति के अनेक प्राकृतिक साधनों की जाँच-पड़ताल करने की प्रवृत्ति पैदा होगी।